बात चलती है जब-जब भी
महिला दिवस की
उनकी आज़ादी की
उनकी जीवन – शैली की
उसकी आत्मनिर्भरता की…….
तब- तब ही याद आ जाती है
माँ, काकी, ताई, मामी, मौसी
जिनके हाथों की लकीरों
में किस्मत की रेखाएं
कम होती थी….
होती थी
तो बस रसोई के मसालो
की महक………..
उनकी साड़ियों में
लिपटा रहता था
दाल के उबाल का पानी
तो कभी
सिलबट्टे पर पिसी हुई
चटनी का रस………… .
जो चूल्हे की गिली
लड़कियों को सुलगाने की
जद्दोज़हद करती
खुद ही पसीने में
भीग जाया
करती थी……….
अपने हाथों की कटी चमड़ी
और पैरो की फटी बीवाई
को मेहंदी के लेप
से छुपाती और
मेहंदी के रंग
देख- देख ही
ख़ुद
को संवार कर
ख़ुश हो जाया
करती थी ये महिलायें ………….
साल भर का गेहूं बिनती
मिर्ची, धनिया, हल्दी
पिसती
हर ऋतु के गीत
गाती – गुनगुनाती रहती
थी ये महिलायें…………
ठन्डी का मौसम आते ही
पूरे साल के पापड़, बड़ी,
कुड़लाई बनाती उन्हें धूप
दिखती
और पूरे साल
सहजती रहती
ये महिलाएं…………
देर रात तक
चूल्हा – चौका करती
निढाल सी हो जाती
फिर भी सुबह
सबसे पहले उठ कर
घर आँगन बुहारती
ये महिलायें…………
ससुर, जेठ के
घर में आते ही
झट से हाथ भर का घुंघट
बिना किसी शिकायत के
ओड़ लेती और ओट
में छुप जाया करती थी
ये महिलायें……….
किसी व्रत या त्यौहार
के आने पर
पुरानी काली पड़ी
पायल को सर्फ से घिसती
चमकाती
और पुरानी साड़ी पर ही
ब्याह की लुगड़ी ( ओड़ना) ओड़ कर
फूली नहीं समाती
ये महिलायें…………..
इतने पर भी
दोपहर फ़ुर्सत होते ही
स्वेटर बुनती
क्रोशिया चलती
और अपने ओढ़ने
में गोटा – पत्ती जड़ती
ये महिलायें…..
व्रत – त्योहारों पर
घर – आँगन को लिपती
माढ़ने – माढ़ती
नित – नए पकवान
बनाती
और ख़ुद सबकी
ख़ुशहाली के लिए
व्रत रख
भूखी ही सो जाती
ये महिलायें……….
सारे घर को सम्हालते ,
सहजते खुद को अक्सर ही
बिसरा देती
फिर भी हर हाल
में घर- परिवार की
खुशहाली की
प्रर्थना करती
ये महिलायें……………
आज के बदलते
समाज की नीव
की पोषक
नए ज़माने के
नए तौर- तरीकों में
जाने कहाँ ही
खो गई